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चुनाव में क्या आर्थिकी, माली दशा के मुद्दे होंगे?

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अजीत द्विवेदी
पिछले लोकसभा चुनाव की एक खास बात यह थी कि उसमें अर्थव्यवस्था से जुड़े मुद्दे चुनावी राजनीति का हिस्सा नहीं थे। चुनाव में व्यापक रूप से राजनीतिक, धार्मिक व राष्ट्रवाद के मसले हावी रहे थे। आमतौर पर जब चुनाव इस तरह के मुद्दों पर होते हैं तब यथास्थिति बनी रहती है। भारत में या दुनिया के दूसरे देशों में भी जब जनता के जीवन से जुड़े मुद्दे उठाए जाते हैं तभी सत्ता बदल की संभावना पैदा होती है। जैसे 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा ने उठाया था। तब महंगाई सबसे बड़ा मुद्दा थी। भ्रष्टाचार का मुद्दा भी था लेकिन उसमें एक पहलू सबसे ज्यादा हावी था काले धन का। कहा जा रहा था कि दुनिया में भारत से भेजा गया चार सौ लाख करोड़ रुपए का काला धन जमा है, जिसे नरेंद्र मोदी जीते तो वापस ले आएंगे और उससे भारत की बरबाद हो चुकी अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकी जाएगी। लेकिन इसके बाद हुए चुनाव में यानी 2019 में विपक्ष प्रभावी तरीके से यह मुद्दा नहीं उठा सका कि चार सौ लाख करोड़ रुपए का काला धन कहां है? आर्थिक मुद्दों से जनता का ध्यान हट कर दूसरे मुद्दों पर चला गया था। जनता पुलवामा की घटना की बात कर रही थी या उरी व बालाकोट के सर्जिकल स्ट्राइक की चर्चा हो रही थी। राष्ट्रवाद के इन मुद्दों के अलावा देश मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई दर्जनों फैंसी योजनाओं में अच्छे दिन तलाश रहा था।

पांच साल के बाद एक बार फिर चुनाव आया है तो अर्थव्यवस्था से जुड़े मुद्दे नदारद हैं। सब कुछ अयोध्या के राममंदिर, जम्मू कश्मीर के अनुच्छेद 370, संशोधित नागरिकता कानून व राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की संभावना, काशी की ज्ञानवापी मस्जिद व मथुरा के शाही ईदगाह के सर्वेक्षण और लक्षद्वीप बनाम मालदीव के विवाद पर केंद्रित दिख रहा है। इन घटनाओं के बीच अर्थव्यवस्था को लेकर बड़ी खबर आई कि चालू वित्त वर्ष यानी 2023-23 में देश का सकल घरेलू उत्पादन यानी जीडीपी 7.3 फीसदी की रफ्तार से बढ़ेगी। राष्ट्रीय सांख्यिकी विभाग ने नए साल के पहले अग्रिम अनुमान के तौर पर यह आंकड़ा जारी किया है। यह आंकड़ा इसलिए अहम है क्योंकि इसका इस्तेमाल सरकार अगले साल का बजट बनाने में करती है। हालांकि अगले साल का पूर्ण बजट चुनाव के बाद आएगा फिर भी चुनाव और अंतरिम बजट से पहले आए इस अनुमान से सरकार को चुनाव के लिहाज से कुछ बड़े फैसले करने का मौका मिलेगा।

ध्यान रहे दुनिया में बहुत कम देश हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था छह फीसदी या उससे ज्यादा रफ्तार से बढ़ रही है। भारत उनमें से एक है। दुनिया की जीडीपी में भारत का हिस्सा करीब 15 फीसदी हो गया है। भारत में इस साल चुनाव होने वाले हैं और उससे पहले अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने और अनुमान से ज्यादा 7.3 फीसदी की रफ्तार से बढऩे की खबर सत्तारूढ़ दल के लिए बहुत सुखद संकेत है। लेकिन क्या जीडीपी का यह आंकड़ा देश की अर्थव्यवस्था की सही तस्वीर दिखा रहा है? यह सवाल इसलिए है क्योंकि जब आप इन आंकड़ों की बारीकी में जाएंगे तो कई चिंता में डालने वाली चीजें दिखेंगी। जैसे राष्ट्रीय सांख्यिकी विभाग ने कहा है कि चालू वित्त वर्ष में कृषि सेक्टर की विकास दर 1.8 फीसदी रहने का अनुमान है। पिछले वित्त वर्ष में यह चार फीसदी रही थी। सोचें, जीडीपी में कृषि सेक्टर का योगदान 15 फीसदी के आसपास है और अब भी सबसे बड़ी आबादी रोजगार और आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है, उस सेक्टर में विकास की दर सिर्फ 1.8 फीसदी है! जब हम आम लोगों के जीवन से जुड़े मुद्दों की बात करते हैं तो एक समस्या यहां दिखाई देती है। भारत के नौजवानों का मन खेती में नहीं लग रहा है और इसलिए लगातार कृषि कार्य से वर्कफोर्स बाहर निकल रही है। परंतु मुश्किल यह है कि दूसरे सेक्टर में नौकरियां पर्याप्त संख्या में नहीं बढ़ रही हैं। गुणवत्ता वाली नौकरियों का तो देश में अकाल हो गया है। इसका नतीजा यह है कि ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट या इंजीनियरिंग, एमबीए की डिग्री वाले नौजवान चपरासी और जू-कीपर की नौकरियों के लिए आवेदन कर रहे हैं।

इसी आंकड़े को बारीकी से देखें तो उसमें यह भी दिखाई देता है कि उपभोक्ता खर्च में विकास दर 4.4 फीसदी है, जो पिछले वित्त वर्ष में 4.5 फीसदी था। इसका मतलब है कि कोरोना वायरस की महामारी के बाद उपभोक्ता खर्च में जो कमी आई थी वह पुराने स्तर पर नहीं लौटी है और निकट भविष्य में उसके लौटने की संभावना भी नहीं दिख रही है। उसका कारण यह है कि गुणवत्ता वाली नौकरियां कम हो रही हैं और पूंजी का केंद्रीकरण चुनिंदा लोगों के हाथ में हो रहा है, जिससे आम लोगों की खर्च करने की क्षमता लगातार कम होती जा रही है। देश में तीन या चार फीसदी के करीब सुपर स्पेंडर हैं यानी खुल कर खर्च करने वाले हैं, जिनकी वजह से अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर दिखाई दे रही है लेकिन वह असली तस्वीर नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था का एक आंकड़ा यह भी है कि 10 लाख से कम कीमत की गाडिय़ों की बिक्री ठहर गई है, जबकि एक करोड़ या उससे ज्यादा कीमत की गाडिय़ां धड़ल्ले से बिक रही हैं। दिल्ली एनसीआर से लेकर मुंबई, बेंगलुरू तक कम कीमत के मकान बन कर बिना बिके बगैर पड़े हैं, जबकि महंगे अपार्टमेंट की बिक्री हाथों-हाथ हो रही है।

असल में सरकार ने बहुत होशियारी से अर्थव्यवस्था की बड़ी तस्वीर यानी मैक्रो इकॉनोमी का प्रबंधन किया है। ऊंची विकास दर दिखाई दे रही है, महंगाई दर काबू में हो गई है, विदेशी मुद्रा भंडार भरा हुआ है और मीडिया के जरिए यह माहौल बना हुआ है कि चीन से कारोबारियों का मन उचट रहा है तो उनकी पसंदीदा जगह भारत है। इस बड़ी तस्वीर के आगे बाकी बातें दब गई हैं। यह कोई नहीं पूछ रहा है कि मेक इन इंडिया अभियान के बावजूद क्यों भारत का आयात बढ़ता जा रहा है या क्यों सारी दुनिया का पेट भरने के दावे करने के बावजूद एक के बाद एक कृषि उत्पादों के निर्यात पर रोक लगाई जा रही है या क्यों भारत का कर्ज इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि वह जीडीपी के 85 फीसदी तक पहुंच गया है? यह भी नहीं पूछा जा रहा है कि क्यों इतनी बेरोजगारी है या इतनी आर्थिक असमानता क्यों है? क्यों पूंजी का एकत्रिकरण थोड़े से लोगों के हाथों में हो रहा है? ये सवाल न तो आम जनता के विमर्श में हैं और न चुनाव का मुद्दा हैं। अगर आर्थिक मुद्दे और आम लोगों के जीवन से जुड़े मसले चुनाव का मुद्दा नहीं बनेंगे तो चुनाव ऐसे मुद्दों पर होगा, जो जनता के जीवन से जुड़े नहीं हैं और तब यथास्थिति को बदलने का कोई भी प्रयास कामयाब नहीं हो सकता है।

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